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Editorial: सर्वोच्च न्यायालय की ईवीएम को क्लीन चिट ऐतिहासिक फैसला

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Supreme Court historic decision giving clean chit to EVM लोकसभा चुनाव के दौरान ईवीएम को लेकर जारी चर्चा अब सामान्य बात हो गई है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जिस प्रकार बैलेट पेपर का दौर न लौटाने और सभी वीवीपैट का ईवीएम से मिलान करने की मांग को खारिज कर दिया है, उससे उम्मीद की जाती है कि अब ऐसे आरोपों पर रोक लगेगी कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है। अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 70 साल से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग की सराहना भी की और इस बात पर दुख जताया कि निहित स्वार्थी समूह देश की उपलब्धियों को कमजोर कर रहे हैं।

अदालत ने कहा कि ईवीएम पर 8 बार परीक्षण किया गया और ये हर बार बेदाग निकली, इसके बाद भी एडीआर अपना एजेंडा चलाता रहा। माननीय अदालत का यह कहना सर्वथा उचित है कि सिस्टम के किसी भी पहलू पर आंख मूंदकर भरोसा न करना बेवजह संदेह पैदा कर सकता है और प्रगति में बाधा डाल सकता है।

 गौरतलब है कि ईवीएम मामले में जस्टिस संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता की बेंच ने स्पष्ट कहा है कि ईवीएम का प्रदर्शन बेदाग रहा है और इसे लागू किए जाने के बाद से 118 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं ने अपने वोट डाले हैं और 4 करोड़ से ज्यादा वीवीपैट पर्चियों का ईवीएम के साथ मिलान किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में केवल एक ही विसंगति का मामला सामने आया है। अदालत का यह कहना उचित ही है कि भारत में चुनाव कराना एक बड़ा टास्क है। इसके सामने कई चुनौतियां होती हैं, जो दुनियाभर में कहीं और नहीं देखी जाती। भारत में 140 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं और 2024 के आम चुनावों के लिए 97 करोड़ पात्र मतदाता हैं, जो विश्व की आबादी का 10 फीसदी से अधिक है।

दरअसल, बीते कुछ समय से देखने को मिला है कि राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर राजनेता चुनाव आयोग और ईवीएम पर दोषारोपण करते हुए अपने स्वार्थ की पूर्ति कर रहे हैं। हाल के वर्षों में कुछ निहित स्वार्थी समूह द्वारा एक प्रवृत्ति तेजी से विकसित हो रही है, जो राष्ट्र की उपलब्धियों को कम करने की कोशिश कर रही है। ऐसा लगता है कि हर संभव मोर्चे पर इस महान राष्ट्र की प्रगति को बदनाम करने, कम करने और कमजोर करने का एक ठोस प्रयास किया जा रहा है। इस तरह के किसी भी प्रयास को शुरुआत में ही खत्म कर दिया जाना चाहिए। कोई भी संवैधानिक अदालत तो बिल्कुल भी इस तरह के प्रयास को तब तक सफल नहीं होने देगी, जब तक कि मामले में उसकी (अदालत की) बात मानी जाती है।

 मालूम हो, एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जो कि याचिकाकर्ताओं में से एक है ने पेपर बैलेट की प्रणाली को लौटाने की मांग की थी। यह आज के समय कितना अजीब लगता है कि कोई बैलेट पेपर के जरिये वोट डालने की मांग कर रहा है। क्या संबंधित याचिकाकर्ता को इसका भान नहीं है कि सेकेंड से भी कम के समय में जब हालात बदल रहे हों और दुनिया इतनी आगे बढ़ चुकी हो, तब बैलेट पेपर का जमाना लौटाने की मांग कितनी व्यर्थ है। और यह सब इसलिए होना चाहिए क्योंकि ईवीएम के हैक होने की आशंका रहती है। माननीय अदालत का स्वीकार किया है कि ईवीएम सरल, सुरक्षित और यूजर फ्रेंडली है। इससे चुनाव प्रक्रिया में जवाबदेही बढ़ती है। वास्तव में एक स्वस्थ लोकतंत्र में इस तरह के संदेह करना ठीक नहीं है। निश्चित रूप से अदालत चल रहे आम चुनावों की पूरी प्रक्रिया को सवालों के घेरे में लाने और याचिकाकर्ताओं की आशंकाओं और अटकलों के आधार पर उलटफेर करने की अनुमति नहीं दे सकती। इस पूरे प्रकरण में याचिकाकर्ता न तो यह साबित कर पाए हैं कि चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल कैसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और न ही वे 100 फीसदी वीवीपैट पर्चियों का डाले गए वोटों के साथ मिलान करने के मौलिक अधिकार को स्थापित कर पाए हैं।

 दरअसल, चुनाव आयोग का यह कहना भी उचित ही है कि राजनीतिक दलों को मालूम है कि ईवीएम निष्पक्ष है, लेकिन इस पर आरोप लगाकर इस प्रकरण को हवा देने के पीछे मंशा राजनीतिक भ्रम फैलाना भर है। भारत में कौनसी बात कब मुद्दा बन जाए, कोई नहीं बता सकता। ईवीएम महज हथियार होती हैं, सत्ताधारी दल पर आरोप लगाने का। अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद संभव है, यह मामला स्पष्ट हो गया है। राजनीतिक दलों को इस फैसले पर भरोसा करते हुए न्यायपालिका की गरिमा को बढ़ाने का काम करना चाहिए।

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